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हरि बिन जियरा मोरा तरसे (कजली) / खड़ी बोली

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   ♦   रचनाकार: अज्ञात
हरि बिन जियरा मोरा तरसे, सावन बरसै घना घोर।

रूम झूम नभ बादर आए, चहुँ दिसी बोले मोर।

रैन अंधेरी रिमझिम बरसै, डरपै जियरा मोर।।

बैठ रैन बिहाय सोच में, तड़प तड़प हो भोर।

पावस बीत्यौ जात, श्याम अब आओ भवन बहोर।।

आओ श्याम उर सोच मिटाऔ, लागौं पैयां तोर।

हरिजन हरिहिं मनाय 'हरिचन्द' विनय करत कर जोर।।


('कविता कोश' में 'संगीत'(सम्पादक-काका हाथरसी) नामक पत्रिका के जुलाई 1945 के अंक से सम्मिलित)