रेत / नवकान्त बरुवा
ढाक कीे अाग बुझ चुकी अब,
शाल और सप्तपर्णी के वनों में
मान शासन की विगत वैशाखी आँधियों से
कितने-कितने सपने झड़ गए,
किसने रखा हिसाब?
कपिली, कलङ्, दिजू के तटों पर
पितामह की अस्थियाँ, पितामही
के कलेजे से उपजे वन नहरू के फूल।
क्या कहा था बादल ने: दान करो, दे डालो सब,
रास्तों के किनारे पेड़ लगाओ --
एक हाई स्कूल खोलो ;
पथिक भला लगता हैै
पथ पर सदा, एकाध निःश्वास ले लो बस,
आने दो वर्षा का जल छत को फोड़कर,
बहा ले जाए मकडों के खोखले शव।
बाढ़ की रेत हैं हम, बनें उपजाऊ भूमि अब,
पौत्रों-दौहित्रों के नए खेतों पर
हल चलने की आवाज़ हमें जगाए।
हँसाए उन्हें हमारे जीवाश्मों में लिखे
आख्यान उन लोगों के,
बीते जन्मों की बातें जिन्हें याद थीं।
सपनों की जिन अन्धी गलियों में
होंगे हम,
उन्हीं के परिवाह में होगा
भविष्य।
नवकान्त बरुवा की कविता : पलस (পলস) का अनुवाद
शिव किशोर तिवारी द्वारा मूल असमिया से अनूदित