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माँ की डायरी से / आरती मिश्रा

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1.

अभी अभी जन्मा था वह
और रोया भी था
रोया नहीं दरअसल मुस्कुराया था इस तरह
कि अंजुरी भर गुलाल बिखर गया आसपास
रंग गए रिश्ते नातों के महीन धागे
आसमान गुलाबी हो गया
उसके घुँघराले बालों को छूकर हवाएँ थिरकने लगीं
पहला रुदन, यह आदिम राग
यहीं से बनते हैं गीत
यहीं से कहानियाँ
साल और तारीख़ें भी यहीं से
यहीं से...

2.

मैं स्त्री हो गई थी समूची स्त्री
कि मेरे आँचल में कुनमुना रहा था
एक नन्हा ‘सोता’
हवाओं के साथ बहने की कोशिश करता
हाथ पाँव मारता गहरे पानी में जैसे
मेरी आँचल में उसकी भूख का पर्याय था

3.

यह तीसरा दिन था जब
मेरी सुबह और दिनों से अलहदा थी
वह परियों की बाँहों में झूलता रहा था शायद
गुलाबी होठों को फैलाए बिना
मुस्कुरा रहा था
मैं नहीं रोक पाई उँगलियों की पोरों को
धीरे से छू लिए गाल
बारिश में नहाए फूल की पँखुड़ियों सरीखे

4.

मैं उसे नाम देना चाहती थी
खोजा क्यारियों के बीच
चिड़ियों और तितलियों के घर गई
नदियों झरनों पहाड़ों में भटकती रही
हवाओं के बीच कुछ पल गुज़ारे
आसमान में जाकर एक-एक तारे से पूछे उनके नाम
उसके जैसा कोई कहाँ था
मैं परियों के गाँव जाकर
ढूँढूँगी, एक सुन्दर सा नाम

5.

किसी लय सा आलोड़न बह रहा था
मेरे भीतर, मालकोस गूँजता तब-तब
जब वह खींचता जीवनरस
मोहन वह, मुरली बजाता दुधियाए होंठों से
उँगलियाँ उसकी लहराती रहतीं
जब तक छेड़ता तान
फिर थककर सो जाता
सचमुच दिशाएँ मुग्ध हो जातीं
और मैं बन जाती
पूरी की पूरी वृन्दावन

6.
आज मेरी सुबह को नीम की पत्तियों ने
ख़ुशबू से भर दिया
उतर आईं नहाने के पानी में
घर के कोनों में भर गई हल्दी सने भात की महक
दूध पीपल के एक-एक घूँट ने
रक्त में घोल दिया परिवर्तनों का स्वाद
और लोटे भर-भर आशीषें मेरे सिर पर उँड़ेली गईं
हरेक बून्द को जतन से समेटकर
रख लिया है मैंने अपनी पीली चुनरी के आँचल में
कि बनाऊँगी बखत-बखत पर
उसके मोज़े-दास्ताने, झबले-टोपी
और भविष्य की चिन्ताओं के लिए भी कुछ ढाल जैसे

7.

जैसे अलसाई पत्तियों के मुँह
ओस की बून्दे धो देती हैं और वे
कुल्हड़ भर-भर रोशनी सुडक़ने लगती हैं
उसने मेरे पेट में गुलाबी पाँव मारे
हथेलियों से टटोला आँचल
कि जाग-जाग उठी मैं
जैसे कभी सोई ही न थी