भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सम्बन्ध / आभा बोधिसत्त्व
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:41, 31 मार्च 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=आभा बोधिसत्त्व |संग्रह= }} चलो हम दीया बन जाते हैं और तु...)
चलो हम दीया बन जाते हैं
और तुम बाती ...
हमें सात फेरों या कि कुबूल है से
क्या लेना-देना
हमें तो बनाए रखना है
अपने दिया-बाती के
सम्बन्ध को......... मसलन रोशनी
हम थोड़ा-थोड़ा जलेंगे
हम खो जाएँगे हवा में
मिट जाएगी फिर रोशनी भी हमारी
पर हम थोड़ी चमक देकर ही जाएँगे
न ज़्यादा सही कोई भूला भटका
खोज पाएगा कम से कम एक नेम-प्लेट
या कोई पढ़ पाएगा ख़त हमारी चमक में ।
तो क्या हम दीया बन जाए
तुम मंजूर करते हो बाती बनना।
मंजूर करते हो मेरे साथ चलना कुछ देर के लिए
मेरे साथ जगर-मगर की यात्रा में चलना....कुछ पल।