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ज़ंग खाया डर / रमेश रंजक

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आ रही कमज़ोर में ताक़त।

पत्थरों पर, थाप कर किरनें
लिख रही है जो इबारत वो
जंग खाया डर निकल जाए
ध्यान से गर बाँच लो उसको

बन्धु ! देने दीन को राहत
आ रही कमज़ोर में ताक़त।

क़त्लगाहों की कथाएँ मौन
पढ़ रहा उभरी नसों का ओज
ज्वार तट से रू-ब-रू होने
बढ़ रहा है, चढ़ रहा है रोज़

मुक्त करने भाग्य से भारत
आ रही कमज़ोर में ताक़त।