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रोज़ के रोज़ बरगलाता है / दीपक शर्मा 'दीप'
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रोज़ के रोज़ बरगलाता है
नाम अपना ख़ुदा बताता है I
कौन उससे बड़ा फ़रेबी है ?
बात बे-बात तिलमिलाता है I
आईना सामने न रखिएगा
ख़ौफ़ कोई , उसे सताता है I
आपकी चोट मेरे जैसी है ?
ख़ैर...दोनों का एक दाता है I
जानता हूँ कि कुफ़्र बोलेगा
पर , बड़े प्यार से बुलाता है I
एक अच्छी ये बात है उसमें
भूलता है , तो भूल जाता है I
दिन-उजाले में हम तवायफ़ हैं
रात होते ही चला आता है I
वाह-वाही , हुआँ-हुआँ जैसी
आपके कुछ समझ में आता है ?
एक पागल है ‘दीप’ कहता है
अर्श-वाला भी घूस खाता है I