भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रत्नदीप / श्रीकांत वर्मा

Kavita Kosh से
Sumitkumar kataria (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 15:46, 21 अप्रैल 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=श्रीकांत वर्मा |संग्रह=भटका मेघ / श्रीकांत वर्मा }} इस न...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इस नीले सिंधु तीर, एक शाम
गीला एकान्त देख
आँख डबडबाई थी
और व्यथा की नन्हीं जल चिड़िया
मुझसे कुछ बोली थी।
मैंने इस सिंधु को—
आश्वासन का एक पाल दिया था, कहाँ है?
अब भी यह सिंधु
सब दिशाओं के कानों में चिल्ला रहा है।

किन्नर, गंधर्वों की गान भरी नगरी में
एक दिन,
टूटा एकतारा ले
भटर रहा मौन देख
गीत सुगबुगाया था
और अनरची रचना कुछ बोली थी।
मैंने इस नगरी को, अपनी अनुभूति के
गहन नीले गह्वर से
बादल का एक गान दिया था; कहाँ है?
अब भी इस नगरी के पाँवों में
पायल की जगह वही
सन्नाटा लिपटा है।

अंधकार के क्षितिजों, टीलों, खंडहरों में
एक शाम,
एक दिग्भ्रमित यात्रा और
रुँधी दिशा देख,
चरण डगमगाए थे और दिशा
पंखकटी चिड़िया-सी मुझ से कुछ बोली थी।
मैंने इस अंधकार के भिक्षुक हाथों को
रत्नदीप दिया था; कहाँ है?
अब भी इस अंधकार में कितनी यात्राएँ
टूटी हुई मोती की माला-सी बिखरी हैं।

मैंने जो रत्नदीप दिया था, कहाँ है?