अनपहचाना घाट / श्रीकांत वर्मा
धूप से लिपटे हुए धूएँ सरीखे
केश, सब लहरा रहे हैं
प्राण तेरे स्कंध पर!!
यह नदी, यह घाट, यह चढ़ती दुपहरी
सब तुझे पहिचानते हैं।
सुबह से ही घाट तुझको जोहता है,
नदी तक को पूछती है,
दोपहर,
उन पर झुंझकुरों से उठ तुझे गोहारती है।
यह पवन, यह धूप, यह वीरान पथ
सब तुझे पहिचानते हैं।
और मैं कितनी शती से यहाँ तुझको जोहता हूँ।
आह!
तूने नहीं पहिचाना मुझे।
इन्हीं पत्तों में दबी है बाँसुरी मेरी कहीं।
इसी नदिया तीर मेरे गान
डूबे हैं कहीं।
प्राण! तूने नहीं पहिचाना मुझे।
मैं तुझे जोहा किया,
रोया किया,
गाया किया,
किसी मुट्ठी में युगोंसे बन्द बादल-सा विकल हूँ हर घड़ी।
प्राण मैं हूँ बवंडर,
जो कहीं पथरा गया।
आह! मैं कितनी शती से, यहाँ
तुझको जोहता हूँ,
किन्तु तूने नहीं पहिचाना मुझे।
इन्हीं पत्तों में दबी है बाँसुरी मेरी कहीं।
किसी टहनी पर कहीं यदि डबडबाए फूल
अधरों को छुला दे,
बाँसुरी मेरी
उठाकर, किन्हीं लहरों में सिरा दे।
मुझे गा दे.............मुझे गा दे!!
घाट हूँ मैं भी मगर
मुझको नदी छूती नहीं है!!
सुबह से ही प्राण! तुझको मैं जोहता हूँ
पूछता हूँ,
झुंझकुरों से उठ तुझे गोहारता हूँ।
आह! मेरी सब पुकारें, मेघ बनकर भटकती हैं!
किन्तु तूने
नहीं पहिचाना मुझे!!
धूप से लिपटे हुए धूएँ सरीखे
केश सब लहरा रहै हैं
प्राण तेरे स्कंध पर!
इन्हीं पत्तों में दबी है बाँसुरी मेरी कहीं!!