भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इस शहर में / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:43, 25 अप्रैल 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' }} पत्थरों के इस शहर में मै...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पत्थरों के

इस शहर में

मैं जब से आ गया हूँ

बहुत गहरी

चोट मन पर

और तन पर खा गया हूँ ।


अमराई को न

भूल पाया

न कोयल की ॠचाएँ,

हृदय से

लिपटी हुई हैं

भोर की शीतल हवाएँ ।


बीता हुआ

हर एक पल

याद में मैं पा गया हूँ ।


शहर लिपटा

है धुएँ में

भीड़ में

सब हैं अकेले,

स्वार्थ की है

धूप गहरी

कपट के हैं

क्रूर मेले ।


बैठकर

सुनसान घर में

दर्द मैं सहला गया हूँ ।