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अँधेरे के दिन / लक्ष्मीशंकर वाजपेयी
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Abhishek Amber (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:15, 30 सितम्बर 2016 का अवतरण (लक्ष्मीशंकर वाजपेयी जी की कविता अंधेरे के दिन)
बदल गए हैं अँधेरों के दिन
अब वे नहीं निकलते
सहमे, ठिठके, चुपके-चुपके रात के वक्त
वे दिन-दहाड़े घूमते हैं बस्ती में
सीना ताने,
कहकहे लगाते
नहीं डरते उजालों से
बल्कि उजाले ही सहम जाते हैं इनसे
अकसर वे धमकाते भी हैं उजालों को
बदल गए हैं अँधेरों के दिन।