भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पूरा परिवार एक कमरे में / लक्ष्मीशंकर वाजपेयी

Kavita Kosh से
Abhishek Amber (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:36, 30 सितम्बर 2016 का अवतरण (लक्ष्मीशंकर जी की ग़ज़ल एक कमरे में)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पूरा परिवार, एक कमरे में
कितने संसार, एक कमरे में।

हो नहीं पाया बड़े सपनों का
छोटा आकार, एक कमरे में।

ज़िक्र दादा की उस हवेली का
सैंकड़ों बार, एक कमरे में।

शोरगुल नींद, पढ़ाई टी.वी.
रोज़ तकरार, एक कमरे में।

एक घर, हर किसी की आँखों में
सबका विस्तार, एक कमरे में।