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भूली यादों के इक ख़ज़ाने से / लक्ष्मीशंकर वाजपेयी
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भूली यादों के इक ख़ज़ाने से
दर्द निकले कई पुराने से।।
उड़ के जाऊँ ये मन करे हरपल
जब रहूँ दूर आशियाने से।
जैसा वादा था आपसे मेरा
आ गए आपके बुलाने से।
रोज़ मिलने की भी तलब जिनको
अब ख़बर तक नहीं ज़माने से।
आप कैसी बहार ले आए
फूल मुरझाए जिसके आने से।
काग़ज़ी फूल कब बने असली
उनमें नकली महक बसाने से।
कुनबा पलता था इक कमाई से
अब कमी सबके भी कमाने से।
दर्द घटता है बाँट लेने से
और गहराता है छुपाने से।