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भीड़ का सैलाब / लक्ष्मीशंकर वाजपेयी
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Abhishek Amber (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:11, 1 अक्टूबर 2016 का अवतरण (लक्ष्मीशंकर जी की कविता भीड का सैलाब)
अच्छा-भला आदमी था
सीधा-सादा, बाल-बच्चेदार, घर-गृहस्थ
कुछ नारे उसे हांक कर भीड़ में ले गए
और उसे भी क्या सूझी
कि अचानक आदमी से
‘भीड़’ में बदल गया
और भीड़ का सैलाब थमने के बाद
उसने पाया अपने आप को
एक अस्पताल के मुर्दाघर में
अपने पहचाने जाने का इंतज़ार करते हुए।