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गंदगी / लक्ष्मीशंकर वाजपेयी
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Abhishek Amber (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:13, 1 अक्टूबर 2016 का अवतरण (लक्ष्मीशंकर जी की कविता गंदगी)
कीड़े ! गंदगी
की तलाश में
चौबीसों घंटे भटकते हैं
जी-जान से
वे हर तरफ़ सूंघते हैं गंदगी
वे जाने कहाँ-कहाँ से ढूँढ़-ढूँढ़ कर लाते हैं
गंदगी
उनमें होड़ है
कि कौन कितनी बड़ी
गंदगी बटोर कर लाए
और कितनी चमक के साथ
परोस दे पूरे देश को
कुछ ढूँढ़ते हैं ‘रंगीन’
गंदगी
कुछ ढूँढ़ते हैं ‘संगीन’
गंदगी
उनका मानना है कि हर इंसान में एक
कीड़ा बसता है
और इस कीड़े को जतन से पाला जाए
तो अच्छा-भला इंसान भुला सकता है
अपनी इंसानियत
अख़बारों की सुर्ख़ियाँ
बताती हैं
कि कीड़े अपनी कोशिशों में
कामयाब होने लगे हैं।