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अश्कनामा / भाग 2 / चेतन दुबे 'अनिल'

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मेरी मेनके! कहो तो कुछ
उर्मिले! उमे! कुछ तो बोलो ,!.
दुनिया दो दिन का मेला है
रस में मत इतना विष घोलो।

रुपसि! क्षण-भंगुर जीवन है
बेमतलब मत यों मान करो
यौवन है सिर्फ चार दिन का
यौवन पर यों न गुमान करो

यह चटक चाँदनी दो दिन की
सब यहीं रखा रह जाएगा,
सौंदर्य – समुंदर ,धन – वैभव
पल भर में ही बह जाएगा।

मानिनी! मान इतना न करो
मान लो तनिक मेरा कहना,
यह रूपराशि दो दिन की है
गल जाएगा तन का गहना।

चिन्तन के शिलालेख पर लिख
अन्तर में तुझे निवास दिया ,
तूने सपनों का किया ख़ून
मेरे मन को वनवास दिया।

तेरे दर्शन की साध लिए
यों कब तक तुझे पुकारूँ मैं
उर्मिले! कृपा की कोर करो
कब तक निज तन-मन वारूँ मैं

आईं सम्बन्ध निभाने को
किसलिए छोड़कर चली गईं
दो दिन सम्बन्ध निभाकर के
अनुबंध तोड़कर चली गईं।

जीवन लगता वीरान मुझे
तेरे बिन जग में सार कहाँ
यदि सार नहीं है सपनों में
फिर प्यार कहाँ? फिर प्यार कहाँ

तेरे दिल का बुझ गया दिया
तू अब क्या प्रीत निभाएगी ,
दिल की जो बसी हुई दुनिया
क्योंकर वह तुझको भाएगी।

तुझको क्या कोई मरे जिए
तू सुखी रहे सुख सपनों में,
जीवन भर साथ निभा दे जो
ढूँढो गैरों में, अपनों में।