भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अश्कनामा / भाग 4 / चेतन दुबे 'अनिल'

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:27, 6 अक्टूबर 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=चेतन दुबे 'अनिल' |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

है प्यार पपीहे का प्रिय में
है प्यार मीन का पानी में,
है प्यार रूठने मनने में
सपनों में, आना – कानी में।

है दीपक और पतंगे में
कमलिनी – सरोवर में भी है,
है प्यार ज्वार औ भाटे में
चन्दा में, सागर में भी है।

है प्यार, इसी से दुनिया है
यदि प्यार न होता, क्या होता?
सपनों के जीने – मरने का
आधार न होता, क्या होता?

दीवाने अगर नहीं होते
‘दीवान’ कौन कैसे लिखता,
हम – आप न होते अगर कहीं
तो सारा जग सूना दिखता।

सपने साकार हुए होते
तो ‘रामायण’ कैसे रचती
कवि कालिदास की ‘शकुन्तला’
दर-दर मारी-मारी फिरती

वह शेक्सपीयर का ‘हैमलेट’
‘गीतांजलि’ कौन कहाँ रचता
‘कामायनी’ अथवा ‘पदमावत’
जैसा महाकाव्य कहाँ टिकता।

मधुरे! अद्भुद शृंगार करो
रूठो न हमारी हृदय -लते!
बोलो, बोलो, कुछ तो बोलो
क्यों दूर जा खड़ी हो कविते!

रूपसि! ऐसा शृंगार करो
लख दर्पण भी शरमा जाए,
सुमुखे! फिर प्यार करो इतना
मन, तन में आग लगा जाए।

सब बीती बातें बिसराओ
कोकिले! मृदुल स्वर में बोलो,
विधुवदने! ऐसे मत रूठो
फिर प्रणय – सिन्धु के तट डोलो।

शशि मुख पर मत घूँघट डालो
मुख को अलकों से दूर करो,
निज हृदय -शिला के तले दबा
अरमानों को मत चूर करो।