अश्कनामा / भाग 3 / चेतन दुबे 'अनिल'
उर में अरमानों को लेकर
किस देहरी पर मस्तक टेकूँ ,
तेरे बिन सारा जग सूना
किस ओर कहो किस विधि देखूँ?
तुझको सम्बन्ध निभाना हो
आजा, फिर प्यार जगा दूँगा,
इस घृणा, द्वेष औ नफ़रत की
दुनिया में आग लगा दूँगा।
मन के सपनों को सँग लेकर
किस द्वारे अलख जगाऊँ मैं
जो दिल था तुझको सौंप दिया
दूसरा कहाँ से लाऊँ मैं।
माना कि मिलेंगे बहुत तुझे
अपनी ‘उर्मिला’ बनाने को ,
विमले! तू बलि – बलि जाएगी
अंतर की प्यास बुझाने को।
‘ढाई आखर’ क्या समझोगी
तुम क्या जानो सपना क्या है?
प्यार भी तुम्हारी नज़रों में
पागलपन है, अपना क्या है?
रम्भे! तुम रमी रहो उर में
मैं सब अपयश पी जाऊँगा,
चादर दागों से मैली कर
अपयश में भी जी जाऊँगा।
यदि प्यार न होता दुनिया में
तो काँटे ही काँटे होते,
किसलिए यहाँ पर जग हँसता
किसलिए यहाँ पर हम रोते।
यदि प्यार न होता दुनिया में
तो यह जग होता वीराना
यदि आँख न लड़ती आँखों से
होता न कोई फिर दीवाना
यदि प्यार न होता दुनिया में
जग में केवल पानी होता,
यदि प्रकृति प्यार करती न कहीं
तो जग का क्या मानी होता।
सपनों की कौन बुने चादर
यदि प्यार न हो इस दुनिया में,
यदि सपनों को टिकने भर का
आधार न हो इस दुनिया में।