भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पुन्न के काम आए हैं / दिविक रमेश
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:46, 29 अप्रैल 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=दिविक रमेश |संग्रह=खुली आँखों में आकाश / दिविक रमेश }} स...)
सब के सब मर गए
उनकी घरवालियों को
कुछ दे दिवा दो, भाई!
कैसा विलाप कर रही हैं।
'कैसे हुआ?'
वही पुरानी कथा
काठी गाल रहे थे
लगता है ढह पड़ी
सब्ब दब गए
होनी को कौन रोक सकता है
अरी, अब सबर भी करो
पुन्न के काम ही तो आए हैं
लगता है
कुआँ बलि चाहता था
'हाँ
जब भी कुआँ बलि चाहता है
बेचारे मज़दूरों पर ही कहर ढहाता है।'