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मिट्टी का मर्म / दिविक रमेश
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अचानक
महसूस किया है मैने
कि मेरे पाँवों में निकल आई हैं
लम्बी-लम्बी जड़ें
- धरती में
- फैलती
- बहुत-बहुत गहरे
- दूर तक।
वे
जिनके भवन
सिर चढ़े हैं आकाश के
- मेरी स्थिरता को
- अपाहिज मानते हैं
ख़ुश हैं कि अब मैं
उड़ा-उड़ा
तिनके-सा
नहीं गिरता
उनकी आँखों में।
मेरे पाँवों से निकली ये जड़ें
घुस गई हैं उनकी नीवों में
उनके ये भवन
इन जड़ों की ताक़त
नहीं कर सकेंगे
- बर्दाश्त....
क्योंकि जड़ें मेरी ही नहीं
उन सबकी फैल रही हैं
जिन्हें धरती पर उगने की
इज़ाजत नहीं थी।