रेती की रात / अजित बरुवा
अन्धेरा होने के कुछ पहले ही
हम सुवनशिरी में उतर गए थे।
नदी से एक डिब्बा पानी ले नाव का मुँह साफ़ किया।
अन्धविश्वासी हैं हम,
बस
रन्ध्र-हीन पूर्ण अन्धविश्वास होता यदि !
रात होने के बाद सुवनशिरी के बीच बालूचर के पास नाव लगा ली
( रेती के जंगल वाले बरम बाबा रक्षा करेंगे?)
ऊपर तारे
हमारे भैंसों की घण्टियों में बजता ब्रह्माण्ड- संगीत
और ये - उस बाघ की गन्ध से आकुल
तितर-बितर होते भैंसों के झुण्ड की
भयातुर घण्टियाँ,
हिलोर फूटी बास, तारा फूले बास
हिलोर फूले बास, रुपया फूटे बास !!
नौका-मुख पर लेटकर
तारे और कीचड़ साथ-साथ दिखते हैं
बाघ की गुर्राहट, भैंसों की घण्टियाँ, जलपरी का गाना
एक साथ बजते हैं बेसुरे सुर में बँधे।
आधी रात को
जहाँ तक नज़र जाती है
( या नज़र के भीतर कहीं ?)
दो अग्निपुंज आ-जा रहे हैं...लगातार,
कच्छाग्नि, समय की पहरेदार,
अन्यथा, पर्दा उठने के बाद --
मेरी मुखाग्नि शायद।
" अग्नि, मेरे बन्धु, कृपालु हो इस घड़ी"...
"आग-लगी, अभागी आँखें !"...
"लिलिमाई, सोचकर देखो तो कुछ नहीं जीवन में"...
पौ फटी तो नाव खोल दी हमने, और
(मुझे लगा, हठात्)
एक जोड़ी गंगा-चीलें
धुन्ध में मण्डराने लगीं।
अजित बरुवा की कविता : 'जेंग्राई ( জেংৰাই )' का अनुवाद
शिव किशोर तिवारी द्वारा मूल असमिया से अनूदित