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मान्यता आस्था / राकेश खंडेलवाल

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मान्यता आस्था की कलाई पकड़
साँझ के झुटपुटे में मेरे द्वार पर
आईं, फिर थाम चौखट खड़ी हो गईं
प्रश्न दोनों ही मुझसे लगीं पूछने

जीते आये हो तुम भाग्य की रेख को
थाम कर आज तक, क्या तुम्हें है मिला
बाँचते रोज ही धर्म के शास्त्र को
आरती को सजा, दीप घी के जला
धर्मगुरुओं के आशीष को शीश पर
तुम मुकुट की तरह से सजाते रहे
मनकामेश्वर की देहलीज पर रोज ही
शीश नागा किये बिन झुकाते रहे

रोज आशा की बगिया रहे सींचते
पर लगी आज हर पौध भी सूखने

नित नई देवियाँ, नित नये देवता
नित्य अवतार तुमने बनाये नये
कैद खुद को किया, खुद ही पिंजरे बना
तुम स्वयं को स्वयं नित्य छलते गये
भूत के प्रेत के साये तुमने रचे
कोई आसेब सिर में उतारा किये
घेरते रात दिन वे तुम्हें ही रहे
तुम जो आडम्बरों को खड़े कर रहे

नाव की योजनायें बनाने लगे
सारा घर बार जब लग गया डूबने

मान्यता ने कहा, बात बतलाओ ये
क्यों सताता है भय, एक तुम ही को बस
जो न भटका कभी मंदिरों की गली
क्यों न उसपे चला है किसी का भी वश
मंत्र ताबीज, गंडे सभी बेअसर
क्यों हुए उसपे जिसने न माना इन्हें
अंधविश्वास फिर किसलिये कर रहे
प्रश्न क्यों न किये? क्यों न जाना इन्हें

तुम ही तत्पर हो सर को झुकाये हुए
इसलिये हर कोई लग रहा मूँडने

आस्था ने कहा बाँच लो व्रत-कथा
सोम की, शुक्र की या कि गुरुवार की
पहले पीड़ा उठाओ, सभी दुख सहो
फिर तपस्या करो इनसे उद्धार की
तुमने सोचा कभी? व्यर्थकी बात है
ईश वरदान दे, प्राप्ति के बाद ही
बिन चढ़ावे न फल कोई पा पायेगा
यह अपेक्षाओं ने रीत ईज़ाद की

वाधिकारस्ते कर्मण्य की बात को
मा फलेषु में सब लग रहे ढूँढने

मान्यता फिर ये बोली, गलत हो गया
सत्य की जीत होती रहे सर्वदा
आज मौका परस्ती का अनुयायी ही
जीतता योग्यता को बता कर धता
नाम पा जाओगे, काट कर रुढ़ियाँ
जिसमें होता अहं, श्रेष्ठ वो आज है
क्या वचन? क्या अरण्यों की भटकन कहो
बाँह में थामने जब खड़ा राज है

जोड़ धागे, जिन्हें तुम चले आज तक
एक के बाद इक वह लगे टूटने

आस्था ने कहा साथ ले मान्यता
हमको अस्तित्व बस एक तुमसे मिला
तुमने ही तो सँवारा हमें हर घड़ी
अपने आधार का तुमसे है सिलसिला
पर नहीं अर्थ ये, आँख मूँदे हुए
हम उदासीन हो मुस्कुराते रहें
तुम दिशाभ्रम में उलझे अगर, तो कहो
क्या गलत राह पर हम भी जाते रहें

आकलन फिर करो अपने आधार का
है ये संभव, लगो अर्थ भी बूझने

मैं निरुत्तर खड़ा देखता रह गया
अपनी ही आस्था, अपनी ही मान्यता
टूट कर थीं बिखरती हुई सामने
कोई कारण पता भी नहीं चल सका
अपने विश्वास की पोटली को लुटा
रिक्त मुट्ठी लिये मैं खड़ा रह गया
बाढ़ असमंजसों की उमड़ने लगी
शेष जो था हृदय में बचा, बह गया

गोख से झाँक देखा तो अँगनाई में
बीज बोये अँधेरों के आ धूप ने