नाम मैंने लिखा प्रीत का / राकेश खंडेलवाल
चाँदनी में भिगो कर हृदय का सुमन
स्वर्ण के वर्क सी भाव की कर छुअन
नैन के पाटलों पर सपन से जड़ा
छंद मैंने लिखा गीत का
भोर की झील में पिघला कंचन बहा
कलरवों ने दिशाओं को आवाज़ दी
आरती गूँजती मंदिरों की, बनी
फिर से पाथेय यायावरी साध की
बादलों पर टंगी धूप ने कुछ कहा
तो हवा झूम कर गुनगुनाने लगी
शाख पर नींद से जाग उठती कली
लाज का अपनी घूँघट हटाने लगी
कसमसाती हुई एक अँगड़ाई पर
गंध में डूब कर आई पुरवाई पर
तितलियों के परों से चुरा रंग को
नाम मैंने लिखा प्रीत का
कंगनों की खनक ने उजाले बुने
जब प्रणय-गान की कुमकुमी राह पर
पैंजनी रंग में फागुनों के रँगी
झनझनाती हुई बढ़ते उत्साह पर
काजलों ने झुका लीं पलक, मेंहदी
और गहरी हुई, कर सजाने लगी
भोजपत्रों पे गाथायें कुछ हैं लिखीं,
कंचुकी, ओढ़नी को बताने लगी
साधना का प्रथम और अंतिम चरण
भित्तिचित्रों में जिसका हुआ अनुसरण
बस उसी एक आराधना में रँगा
नाम मैंने लिखा रीत का
टिमटिमाती कँदीलों से उठता धुआँ
ड्योढ़ियों से रहा झाँकता जिस घड़ी
बुझ चुकी धूप की मौन बोझिल शिखा
होंठ पर उँगलियाँ थी लगाये खड़ी
पाखियों की उड़ानें, थकेहाल हो
नीड़ में आ बिखरती हुई सो गईं
पीपलों के तले जुगनुओं की चमक
निशि के आँचल के विस्तार में खो गईं
साँझ की सुरमई रोशनी ओढ़कर
सारी सीमायें बंधन सभी तोड़ कर
रात की श्याम चूनर पे तारों जड़ा
नाम मैंने लिखा मीत का