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हैत री फसलां / आशा पांडे ओझा
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कोई दो-च्यार दिन
मिल मिला'र
म्हारै मन खैत में
फिरा-फिरा'र
हैत री जिकी फसलां
बौयग्या हा थे
लारला बीस बरसा सूं
सींच रैई हूँ उण नै
म्हारी आंख्या रै सावण सूं
अर दर्द भी करै है
बराबर निंदाण
नीें उगण दैवे नैड़ौ-नैडो
सुख रौ कोई झाड़-झंखाड़
तड़प रौ तावड़ौ भी
गजब आकरौ तपियौ इण माथै
आज ऊबी है ए फसलां
म्हारै माथा उपरांण
जै इण सूं बारणै
कीं देखणो चाऊं
तो भी नी दिखै
दीठ इणरै आगे
जावै ई कोनी।