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संभावना / राजेन्द्र किशोर पण्डा / संविद कुमार दास

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ऐसे ही सजी रहे यह महफ़िल
कोई आने को है।

तोरण बने रहे, जगमगाता रहे मण्डप,
कण्ठ से मेरे लहराते रहें सुर,
त्रुटि ना रहे संगत में कुछ ।
कोई आने को है, कोई आने को है...

कितनी जो बातें कही जा चुकी हैं यहाँ !
और भी अनेक बातें कहने को हैं
अनेक बातें रखनी है गोपन में,
अनेक नीरवता मुझे सुनानी है ।
बजता रहे तानपूरा, बहकता रहे मिजाज़...
भाव और भी आवेश और भी आने को हैं...

ऐसे तो भरपूर ही दिखती है महफ़िल
लग रहा है फिर भी
कहीं कोई जगह ख़ाली है...
कोई आने को है ।

चाँदी की तश्तरी में रखे रहे लौंग लगे हुए पान के बीड़े,
बारिश की झींसी फुहार की तरह झरता रहे इत्र ।
अनेक मेरी प्रत्याशाएँ हैं, अनेक मेरी आशंकाएँ हैं ।
एक अगरबत्ती गर बुझ सकती है,
एक और जलानी है...

किसी को मस्त होना है मरीचिका पी कर,
कोई भटकने को है अपनी ही जगह बैठकर ।
किसी को जाना है दौलताबाद,
कोई लौटने को है दिल्ली...

दो हिस्सों में रखो फूलों का सम्भार,
किसी की अरथी पर चढ़ाने है
किसी के लिये जयमाला एक गूँथनी है ।
ऐसी जमी रहे यह महफ़िल,
कण्ठ से मेरे लहराते रहें सुर,
शब्द मिल जाने की प्रतिश्रुति है
अर्थ खो जाने की आशंका है,
किसी को उठ जाना है महफ़िल से,
कोई आने को है...

कोई कहता है बेमज़ा लगने लगा है मुँह का मीठा पान?
कोई कहता है ढलने लगी है रात?
कोई कहता है ख़त्म होने चली है मजलिस?
कोई कहता है गायक है अब अकेला?
भीड़ की नज़र बचाकर एक वार्ता मुझे देनी है :
किसी को चुपके से 'स्वागत' किसी को चुपके से 'अलविदा'
जताना है...

खुली रहे कविता-किताब के पन्ने ―
एक पंक्ति काटनी है, एक पंक्ति जोड़नी है ।
कोई आने को है...

ऐसे ही झूमती रहे यह महफ़िल,
किसी को उठ जाना है,
बिलकुल उसी तरह का कोई और
आने को है...

सत्य के उस पार तो झूठ-मूठ की
संभावना है
झूठ को सच में बदलने के लिये ही तो
संगत जमी है...

कोई आने को है
कोई आने को है...