Last modified on 11 दिसम्बर 2016, at 16:56

अपसृयमाना / राजेन्द्र किशोर पण्डा / संविद कुमार दास

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:56, 11 दिसम्बर 2016 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

हमेशा के लिये विदाई लेकर तुमसे चली जा रही रमणी
गरदन मोड़कर बीच रास्ते से पलटकर देखेगी,
ज़रूर पलटकर देखेगी,
सिर्फ़ एक बार,
मुहूर्त भर
आँखें चार होने का
वह क्षण-दृश्य है प्रेम की विजय,
अनिर्वचनीय !

उसके बाद वह और किसी के आश्लेष में
एक आश्लेष से दूसरे में
पौनःपुनिक आश्लेष देकर
दूर-दूर
चली जाएगी तो, ओझल हो जाएगी तो, जाए ।

हमेशा के लिये विदाई लेकर
जाते समय जरूर पलटकर देखेगी वो, एक बार ।
विकर्षण का नियम है यह ।

उसके बाद तुम
हो सकता है, वेगवती नदी पर घोड़ी चढ़कर दौड़े जाओगे
दक्षिणावर्त के अज्ञातवास में, नहीं-नहीं के विलय में ।

दृष्टि निबद्ध रखना चिर-विदाई की घड़ी में
दूर होती जा रही उस स्त्री (अपसृयमाना) की ओर,
आख़िरकार
गरदन मोड़कर बीच रास्ते से एक बार उसके
पलटकर देखने तक ।

हो सके तो, प्रगट होकर रह जाना उस बिन्दु पर
कालों तक ।
किसे पता,
मुहाने की ओर बढ़ती नदी भी मेघ के वेश में उड़ कर
नमी देती है विंध्य पर्वत को !

मूल ओडिया से अनुवाद : संविद कुमार दास