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षड्-ऋतु विरह कवित्त / राहुल शिवाय

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वसंत

पवन मधुर बहे, अली प्रेम राग कहे,
राग ये घायल उर व्याकुल बनाते हैं l
पोर-पोर नव प्राण, मधुर कोयल गान,
सजनी-विछोह में ये मुझे न सुहाते हैं l
खिले ये पलास लगे आग के सदृश मुझे,
मेरे तन मन में ये आग सुलगाते हैं l
मधुर वसंत में भी, उर स्नेहहीन रहे,
विधुर नयन मेरे अश्रु को बहाते हैं l

ग्रीष्म

आग को हवाएं भर चीखती हैं घूमती हैं,
धरती से उठती हैं, जाती हैं गगन में l
प्यासे पशु, प्यासे खग, प्यासा है मानव तन,
मेरे जैसी प्यास जगी, आज कण-कण में l
सूखे तृण, सूखे पेड़, सूखे नदी-पनघट,
जैसे सूखे आँसू मेरे विकल-नयन में l
जेठ क्या तपाए तन उसका जो तप रहा,
नितदिन प्रियसी के विरह अगन में l

वर्षा

घटाएं गगन डोले, मोरों ने हैं पंख खोले,
वायु मेघ-दूत बनी बाँट रही पाती है l
पिकी-पपीहरा गाए, दादुर-झिंगूर बोले,
सौंधी-सौंधी गंध धरा वायु को लुटाती है l
उमड़-घुमड़ घन, गरज-बरस रहा,
ऋतुरानी रह-रह प्यास को बुझाती है l
जग की तृषा मिटाती वरखा सुहानी पर,
मिलन की प्यास मेरी, कहाँ ये बुझाती है l

शरद

कास का उजास भरा, चंद्र का प्रकाश बढ़ा,
धूप ये नहाई हुई सबको सुहाती है l
ताल-ताल मेँ भरे हैं राजीव के फूल और,
पारिजात-रातरानी वायु महकाती है l
उत्सव-उमंग भरा ऋतु जो सभी के लिए,
मुझे वो प्रसन्न-चित कर नहीं पाती है l
जो पूनम तृप्त करे, विकल चकोर उर,
क्यों नहीं वो प्यास मेरे दृगों की बुझाती है l

हेमंत

धान-बाली पक गई, शरद विगत हुआ,
खुशियों के साथ आया ऋतु ये हेमंत का l
हो गया मलिन शशि, अम्बर से जल गिरे,
कुहरे मेँ धुप बना रूप किसी कंत का l
शीतल सुखद कुञ्ज, फूल भरे उपवन,
शोभा है असीम आज दिग व दिगंत का l
कैसे ये सुहाए कहो मधुर-सुखद छवि ?
प्रिया सुधियों ने रूप लिया यदि हंत का l

शिशिर

झड़-झड़ झड़ते है पत्तियां तरु से सभी,
आई है शिशिर ऋतु, या कि आया काल है l
जग में कुहासा बिछा, जीवन अचेत हुआ,
तन-तन, मन-मन, जीवन बेहाल है l
पशु, खग,तरु, नर, अकड़ ठिठुर रहे,
शीत सुरसा के मुख सा हुआ विशाल है l
भानु का भी तेज घटा, शिशिर सम्मुख पर,
कमा मेरे उर नहीं विरह का ज्वाल है l