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जनता धेाखा खाती है / डी. एम. मिश्र

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सत्ता से बाहर
व्यायामशाला में वर्जिश
और रियाज़ में लगे
पहलवान ने कहा
कल जो तू था
वो आज मै हूँ
कल जहाँ मैं था
वहाँ अब तू है
लेकिन जनता
निरीह है
समझती नहीं बेचारी
जनता धोखा खाती है और
धेाखा ओढ़ती और
बिछाती है

त्रासदी देखिये
चिथड़ेलाल गदगद हो जाता है
जब एक रेशमी कुर्तेवाला
लेकर कुचड़ा उसके बगल में
आ खड़ा होता है
और शिवकुमारी तो पागल हो उठती है
जब एक राजकुमार उसके हाथका
बना भेाजन कर लेता है
जबकि बार -बार यही होता आया है

कुर्सी पाते ही मुलायम चेहरा
अपना रूख बदल लेता है
आदतें बदल लेता है
ज़रूरतें बदल लेता है
और पैंतरे भी
सरेआम वो जिस खेाटे सिक्के को
पहले हवा में उछालता है
लपककर फिर उसी को
मार्केट में उतारता है
जहाँ बेशर्र्मी की जगह नहीं होती
वहाँ कलंक की काई नहीं जमती

दूसरी तरफ सत्य और
न्याय के कालिख पुते चेहरे को
पहचानने का संकट नहीं है
फिर भी जो जहाँ है
भैचक्का-सा
टुकुर- टुकुर ताक रहा है
दायीं ओर जाये तो ख़तरा
बायीं ओर फिर मुड़े तो धोखा
बस एक फ़ज़ीहत
और गले में फाँस

क्षुधा के नाम पर
कुछ भी परोसा जा सकता है
लोहे के बाट से
कुछ भी तौला जा सकता है
मिट्टी के बदले गिरवी
सोना रखा जा सकता है
क्योंकि लोकतंत्र में
आइने की अहमियत नहीं होती
और मुखौटे के बाहर
चेहरा नहीं होता