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नदी रेत हो गयी / डी. एम. मिश्र
Kavita Kosh से
धनिया तू तो
बीस बरस हमसे छोटी
कब लरकोर हुई
कब लटक गयी
आज़ाद मुल्क़ की
प्रगति -तरक्की
जैसे छप्पर पर लौकी
कहाँ गया तेरा कपोल
सुंदर गुलाब -सा
झाँई फैली
काई और फँफूद की तरह
झील ऑख चंचल चितवन
धुंधला दरपन
गहरे खोड़र
भरे-भरे कीचर -मटके
जर्जर -नम-कच्ची-दीवारें
जैसे उगलें लोने
कोमल-माँसल-त्वचा विसर्जित
झुर्री-चमड़-सूखी शेष
हील गयी यौवन की सत्ता
हुई फालतू अँगिया चोली
मीज उठी तरुणाई में
शैल- शिखर मैदान हुए
मैदान धँस गया खाई में
खौराई कुतिया
मरियल पिल्लों की माँ
पातर-मोट जो मिला लील
पसर गयी
खाली बोरा
खुला बिछौना
खुले गगन में
फैल गयी
सर से लेकर पाँव तलक
पीलिया ग़रीबी का आतंक
सूख गयी असमय
रस की अविरल धारा
चलते-चलते जैसे
नदी रेत हो गयी