भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रोशनी का क़त्ल / डी. एम. मिश्र

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:26, 1 जनवरी 2017 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रोशनी का क़त्ल
सबके सामने
दिन के उजाले में हुआ
सब मौन थे
लोग अब अनजान बनकर
पूछते हैं
जुल्म जो करके गये
वो कौन थे

कौन बोले
सभ्य लोगेां का इलाका
दूसरों का मामला
सब शांति है
न कोई रोकने वाला
न कोई टोकने वाला
जिसे निष्पाप समझा था
गुनहग़ारों में शामिल है

हमारे बीच में का़तिल
हमीं उससे रहे गाफ़िल
अब उसकी साजिशें देखो
कभी दरपन समझता है
कभी शीशा समझता है
कभी बारूद का गोला

न कोई पूछने वाला
न कोई जाँचने वाला
जिसे प्रतिरोध करना था
मददग़ारों में शामिल है

सुरक्षा के बड़े दावे
जहाँ ज्वालामुखी लावे
हुए जो हादसे देखेा
अगर पर्दा उठा दें तों
अगर चेहरा दिखा दें तो
सभी हैरान रह जायें
जो सच्चाई बता दें तो
न कोई सोचने वाला
न कोई समझने वाला
जिसे बदलाव लाना था
तलबग़ारों में शामिल है