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काग़ज़ की नाव / मोहन राणा

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मैं देखता हूँ, तुम्हें जो तुम नहीं हो

आँखें मूंदता हूँ और उस अंधेरे में भी कुछ देखता हूँ,

कहता उसे रात का सपना


मैं देखता हूँ कुछ जो जिया ही नहीं अभी

जैसे पहली बार,

कहाँ चली गईं सूचियाँ

मेरी अव्यवस्थाओं की

उन्हें बटोर मैं बना सकता हूँ एक नाव

तब मैं अकेला ही निकल पड़ूंगा


मैं देखता हूँ सपना एक सड़क का

चक्करदार ग़ुम होती मोड़ों पर ढलवाँ

जो कहीं नहीं जाती

और मैं बढ़ता जा रहा हूँ उस पर फिर से


सड़क जो सड़क नहीं है

झुककर छूता उसे हिलती सतह

जैसे हल्की-सी हिलोर डामर में

पानी की तरह डूबता नहीं


18.05.1994