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चढ़ते हुए दरिया को उतरते देखा / रतन पंडोरवी

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चढ़ते हुए दरिया को उतरते देखा
जो डूब गया उस को उभरते देखा
मजमूआए-अज़्दाद है सारा आलम
जीते जिसे देखा उसे मरते देखा।


किस कहर का अफ़्सूने-महब्बत देखा
देखा जिसे मफ्तूने-महब्बत देखा।
अर्बाबे-महब्बत का तो कहना क्या है
खुद हुस्न को मरहूने-महब्बत देखा।


दिल चाहता है तुझ में फ़ना हो जाऊं
फानी हूँ मगर शक्ले-बक़ा हो जाऊं।
अपनी भी खबर नहीं है मुझ को अब तक
पहचान लूं खुद को तो खुदा हो जाऊं।