भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चूहा / सरबजीत गरचा / वर्जेश सोलंकी

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:41, 3 जनवरी 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वर्जेश सोलंकी |अनुवादक=सरबजीत गर...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चूहा मरा पड़ा है
घर में।

मैं-माँ-बाबा-काका-बहन
नाक-मुँह पर रूमाल कसकर
युद्ध स्तर पर ढूँढ़ रहे हैं
चूहा कहाँ मरा पड़ा है
अटारी पर, अलमारी में, फ़र्नीचर के नीचे,
कोने में, कचरे की टोकरी में,
घर का चप्पा-चप्पा छान मारा फिर भी
फ़लाना एक जगह उसकी छोड़ी लेंडिय़ों के सिवा
हाथ नहीं लगा है
उसका कलेवर
हमारे सर चढ़कर भनभना रहा है
दुर्गन्ध का हिंस्र जमाव

इतने दिन
मेरा चमड़े का नया बटुआ, माँ की साड़ी,
बहन के मेहनत से बनाए हुए नोट्स
बाबा का नींद में पैर
कुतरने वाले चूहे का
बाज़ार से ज़हर की गोलियां लाकर
सभी ने उसे मारकर ले लिया था प्रतिशोध

मैं-माँ-बाबा-काका-बहन
शायद हम सभी के ख़ून में भी बहती गई होगी
चूहे की तरह
एक-दूसरे को नाहक कुतरने की पाशविक शक्ति
लड्डू में मिलाई ज़हर की गोलियों के जैसे
हम भी जी रहे होंगे
रिश्ते-नातों के नाज़ुक स्वांग
एक-दूसरे के आगे सिद्धहस्तता से फुदकते

घर में
चूहा मरा पड़ा है।

मूल मराठी से अनुवाद : सरबजीत गर्चा