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कुछेक दिन / उत्पल बैनर्जी / प्रोमिता भौमिक

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शहर के सिरहाने से
उछल उठे हैं दो पूरी तरह से अलग सपने —
लगता है कुछेक दिनों से
मानो मृत्यु की आगोश में लेटी हुई हूँ,
ख़ाली हवा में लगातार फेंक रही हूँ
अपने डर
मैं अब और
ख़ुदकुशी की तसवीरें नहीं देखूँगी
अख़बारों के पहले पन्ने पर;
कुछेक साल टिके रहने के लिए
इस धरती की ख़बरें सुनते-सुनते
सोने नहीं जाऊँगी आधी रात को
शहर के किसी बाज़ू से
अगर सपने पैदल-पैदल चले जाएँ तेज़ क़दमों से
तो मैं धूल भरे पैर लिए
हो जाऊँगी बेघर
कुछेक दिन जीवन की ओर देखते-देखते
मैं छुए रहूँगी नमक, पसीना और सौरजगत।

मूल बंगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी