भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हर बात रोटी से / डी. एम. मिश्र

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:30, 9 जनवरी 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=डी. एम. मिश्र |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> हर...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हर बात रोटी से चलती है
और रोटी पर खत्म हो जाती है

रोटी वह ‘न्यूक्लियस’ है
जिसके चारों ओर
संसार घूमता है
जैसे ‘इलेक्ट्रान’
बस इसीलिए
रोटी गोलाई लिए होती है

रोटी एक मजबूरी है
जो आदमी को जानवर बना देती है
आज रिक्शे, ताँगों पर
पहिए की जगह रोटी
और रोटी के लिए
घेाड़े की जगह आदमी जुता है

मैंने अक्सर देखा है
रोटी सेंकते
और फुटपाथ पर सोते
मजदूरों को
जिनकी पीठ पर बने
बोझों के ज़ख्म
कभी - कभी चमक उठते हैं
धुआँ छोड़ते
आधे -अधूरे
चूल्हे की रोशनी -सा