भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ठिठक जाता हूं / योगेंद्र कृष्णा
Kavita Kosh से
योगेंद्र कृष्णा (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:12, 30 जनवरी 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=योगेंद्र कृष्णा |संग्रह=कविता के...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
तुम्हारे चेहरे पर
हंसी की संभावनाएं
ढूंढ़ता हुआ जब भी मैं
तुम्हारे करीब आता हूं
तुम्हारी आंखों में जमी
बर्फ की नदी देख कर
ठिठक जाता हूं
इतना भी ताप
क्या बचा है
मेरी आंखों में
कि पिघल जाए
तुम्हारी आंखों का संताप
और फिर से बहने लगे
तुम्हारे भीतर की नदी...