भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मैं और वक्त / रति सक्सेना
Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 22:09, 7 मई 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रति सक्सेना }} बचपने के हाथों ने<br> वक्त को जी भर खेला<br> म...)
बचपने के हाथों ने
वक्त को जी भर खेला
मिट्टी पर सपाट फैला
कोने से कोना मिला
तैयार की एक नाव
बेशकीमती चीजें भर
खे ले चली
पहाड़ की चोटी पर
जवानी की तत्परता ने
वक्त को पीछे ढकेला
कंधे पर लाद जिन्दा लाश
हाँफते चली कुछ कदम
अब, जब कि मैं और वक्त
अलग हैं करीब-करीब
वक्त की कैंची
लपलपा रही है मुझ पर
मैं देख रही हूँ
अपनी कतरनों को
कतरते हुए वक्त को