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डीह से कैसे विसर लूँ / अमरेन्द्र

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डीह से कैसे विसर लूँ,
चाँद पर जा एक घर लूँ !

आज तक देखा नहीं क्यों
इस जगत को घूम कर मैं,
मैं चला जब भी, चला हूँ
काँटे-कंटक चूम कर मैं;
सामने था रूप सँवरा
जिस जगह नाटक किया मैं,
था बहुत ही कीमती, पर
व्यर्थ ही जीवन जिया मैं;
नींद की बन्दी हैं पलकें
और मन में है, सँवर लूँ !

जो मिला था खो चुका हूँ
जो न किस्मत में, ललक है,
एक भागमभाग जैसे
भ्रान्त पथ पर आज तक है;
यह नहीं मैं जानता हूँ
मुट्ठियों में क्या रखा है,
प्राण माहुर से विकल हैं
कौन-सा फल को चखा है;
यह अनश्वर लोक सुन्दर,
क्या तुम्हारा वह अमर लूँ !