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मैं न जानूं आह कैसी / अमरेन्द्र

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मैं न जानूं आह कैसी,
इस घड़ी यह चाह कैसी !

यह समय तो बस इसी का
आँख मूंदे सो रहूँ मैं,
कोई कुछ बोले हजारों
पर नहीं कुछ भी कहूँ मैं;
स्वप्न सारे ही गिरा दूँ
मन लगे पत्थर-शिला-सा,
छोड़ दूँ संबंध अब से
फोंक है, ऊपर मिला-सा;
क्या हुआ यह आज जी को
खोजता है राह कैसी !

श्वेत फूलों के विपिन में
गंध कोमल-धवल चैंके,
हाथ को आगे बढ़ा कर
आज क्यों मकरन्द रोके;
क्यों हृदय में अबुझ हलचल
भाव का शृंगार क्यों है ?
पीत, झरते प्राण-पल्लव
से लगा यह प्यार क्यों है ?
शशि-वदन में श्याम घन-सी,
हो रही है डाह कैसी !