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बिजलियाँ-घन गरज बरसे / अमरेन्द्र
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बिजलियाँ-घन गरज बरसे
प्राण हैं; ज्यों, शशक डर से।
छा, छटक-सी ज्योति-रेखा
फिर तमस का घोर घर्षण,
नाद भयकारी किसी का
लय-प्रलय का करुण दर्शन;
सृष्टि का कुछ भी, कहीं भी
शान्त-इस्थिर नहीं दिखता,
कौन चन्दन के विटप पर
रक्त का इतिहास लिखता!
आज जीवन दूर देवी
प्राण को हैं प्राण तरसे ।
खल-करों में पड़ तुम्हारे
त्राण के सब मंत्रा फीके,
हैं बंधे मलकाठ से सब
शीश पर क्षय-काल टीके;
मुक्त जन को करो देवी
खल अगोचर के करों से,
और गोचर गिरि-पवन के
प्राण लोलुप वनचरों से !
हो निखिल यह सृष्टि देवी
मोद में, ज्यों शिशु हर्षे !