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मन वही फिर गीत गाए / अमरेन्द्र
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मन वही फिर गीत गाए,
मौज के दिन लौट आए !
है पता मुझको यहाँ पर
कुछ नहीं है नित्य फिर भी,
चाहता मन प्राण पुलके
काल के हाथों में गिरवी;
सूख जायेगी कभी भी
सोच यह नदिया न बहती,
जिस जगह पर वन कभी था
आज रेगिस्तान-परती ।
इस तरह खुल कर हँसो तुम,
गाल पर भँवरे दिखाए !
सृष्टि यह सुन्दर बनेगी
आँसुओं से हँसी बरसे,
रात को ऐसा सजाओ
जिन्दगी को मौत तरसे !
सृष्टि उसको याद रखती
आग पर जो मुस्कुराता,
इसलिए तो जा रहा हूँ
वेदना को मैं हँसाता ।
यह नहीं संभव समय से
कि मुझे वह भूल जाए ।