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झर झरो पावस सजीले / अमरेन्द्र
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झर झरो पावस सजीले !
आज क्यों हठ ओ हठीले ?
शुष्क अधरों पर किसी के
स्वर नहीं, व्यंजन नहीं है,
किस तरह से तन रंगे मन
सामने रंजन नहीं है;
है हरे सब पीत-नीले,
सुर सुरीले झनझनाए
चन्दनों की डालियों में
शूल के दल निकल आए;
हैं विरस अब ताप से तप;
बोल ! प्राणों के रसीले ।
क्यों कृपण हो निधि चुराते
दान में जीवन दिखा है,
त्याग में ही भोग शामिल
भाग्य यह विधि ने लिखा है;
जो मिला जिसको है जितना
सौंप जाना है कभी तो,
कर्म का ही लेख अक्षर
कह रहा हूँ मैं तभी तो;
पास आओ ओ प्रवासी
सबके अधरों की हँसी ले !