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है दिये की रोशनी, पर / अमरेन्द्र

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है दिये की रोशनी, पर
तीर तम की शिंजिनी पर।

यह समर जीवन-मरण का
कौन जीते, कौन हारे,
मूक दर्शक-सा समय है
संधि के सब चूर नारे;
कुन्द-सी निर्मल हँसी को
घेर लेती जब निराशा,
तब कहीं पर नियति बैठी
मुस्कुराती फेक पासा;
कुण्डली मारे हुए घन
किस तरह है दामिनी पर।

दीप का यह दान लेकिन
रुक नहीं सकता तमस से,
छुप नहीं जाता है जीवन
मृत्यु की आहट-धमस से;
जी रहा है पल दिये-सा
काल को उत्सव बनाए,
रेत पर वैसे पड़े हैं
चिन्ह, जो हैं छोड़ आए।
रोशनी की रात लगती
चाँद बैठा है शनी पर ।