भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
है दिये की रोशनी, पर / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:38, 13 फ़रवरी 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अमरेन्द्र |अनुवादक= |संग्रह=दीपक...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
है दिये की रोशनी, पर
तीर तम की शिंजिनी पर।
यह समर जीवन-मरण का
कौन जीते, कौन हारे,
मूक दर्शक-सा समय है
संधि के सब चूर नारे;
कुन्द-सी निर्मल हँसी को
घेर लेती जब निराशा,
तब कहीं पर नियति बैठी
मुस्कुराती फेक पासा;
कुण्डली मारे हुए घन
किस तरह है दामिनी पर।
दीप का यह दान लेकिन
रुक नहीं सकता तमस से,
छुप नहीं जाता है जीवन
मृत्यु की आहट-धमस से;
जी रहा है पल दिये-सा
काल को उत्सव बनाए,
रेत पर वैसे पड़े हैं
चिन्ह, जो हैं छोड़ आए।
रोशनी की रात लगती
चाँद बैठा है शनी पर ।