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गेना-शरत खण्ड / गेना / अमरेन्द्र

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बीत गया आसिन का माह आया कातिक है
कैतकारी हवा पूरी देह गुदगुदाती है
जैसे कोई छू गया हो मयूर के पंख से ही
ठीक-ठीक ये हवा भी वैसी ही बुझाती है
रूई जैसा उड़ने को चाहे मन रह-रह
बंधन की बात नहीं देह को सुहाती है
फूल जैसे दिन में पराग जैसी पूरी रात
अवधि बौराए जो, जी कातिक कहाती है ।

धोई-धोई रात लगे, दिन भी नहाया-सा ही
साफ-साफ गगन भी काँच-सा दिखाता है
धूल का कहीं न नाम दिखता है तनिक भी
चुनचुन ले गया हो, ऐसा ही सुहाता है
रेशमी पटोरी-सी है माटी; मन ऐसा मोहे
मन का विराग कोई जैसा कि भगाता है
धोबी से धुलाई धोती जैसा दगदग दिन
योगी के भी निरमल मन को लजाता है

बांध-बांध आ रहा उदास-खिन्न-सा है गेना
टघे, झुके, रुके, फिर खुद को संभाल के
साँझ की भी संझवाती जल चुकी घर-घर
पंडा जी जुगाड़ में हंै आरती उतारने
मन लायक पाने को मसूदन के द्वार पर
खड़ी हुयीं युवती भी अँचरा पसार के
झटक-झटक कर गेना भी है आ रहा
बाबा को कहने कुछ, बाबा को पुकारने ।

जोर से, हौले से बजे टुनटुनी मंदिर की है
घण्टे के निनाद से मंदार भी है गूंजता
बाबा के पुजारी, और भक्त के झूमे हैं मन
नाद सुन पापी का कलेजा कैसा डरता
वंशी जैसे कृष्ण की गोपी का मन हरती थी
देवता का है भजन वैसे ही मन हरता
ठट्ठ भीड़ देवता के द्वार पे लगी हुई है
झरता जहाँ पे सुख, पुण्य जहाँ फरता ।

पूर्णिमा की रात है; आकाश में दुधिया चाँद
चाँदी का जलाया दीपµऐसा ही दिखाता है
भँसती है बाढ़ में ज्यों कागज की नाव और
बच्चा कोई देख-देख नाचता औ गाता है
वैसी ही चाँदनी-बाढ़ बहती है धरती पे
भँसता मंदार देख चाँद मुस्काता है
ठहाका इंजोरिया के डर से अंधेरा आज
अपनो को घर-लत-तर मंें छिपाता है ।

धान से जरा-सा ऊँचा, धान को हटाते गेना
आ गया है मंदिर के एकदम सामने
झपट-झपट कर चलने से हाँफता है
रुके न पसीना, ऐसा लगा है वह घामने
पोछ कर हाथ से पसीना; साँस तेज खींच
छोड़ दी निकट आके, बहुत ही सामने
लेकिन चैखटे पर पैर रखते ही हाय
रह गई मन तक मन की ही कामना ।

‘कैसे जाऊँ अन्दर मैं बाबा की मूरत देखूँ
लोगों के लिए तो मैं हूँ, बच्चे के लिए ज्यों भूत
मैं तो नहीं बड़ा जन, बड़े कुल का चिराग
नहीं धर्म-मालिक हूँ, या तो धनपति-पूत
मैं तो उस जाति का हूँ जिसका कि काम एक
सबके गू साफ करूँ और साफ करूँ मूत
जैसे आँख आने पर रोशनी आँखों को गड़े
बीच में सभी लोगों के, वैसा ही तो मैं अछूत ।

उस दिन बोलते थे यही तो पुरोहित जी
भगवान घट-घट में निवास करते हैं
एक ही तो ब्रह्म यहाँ धरते अनेक रूप
सब में बराबर ही वे विलास करते हैं
जबकि एक ही देव जीव देते, पालते हैं
और एक देवता ही सबको विनाशते हैं
तब कैसे भेद हुआ आदमी-आदमी में ही
एक दूसरे का क्यों ये उपहास करते हैं ?

कभी-कभी लगता है मुझको यही कि प्रभु
ठीक तुमने कहा है गीता में हँकार कर
ताराओं में चन्द्रमा हो, देवता में इन्द्रदेव
पर्वतों में मेरु रूप आते तुम्हीं धार कर
नदियों में सागर हो, हाथी में एरावत ही
कामधेनु गाय में होµलघुता को वार कर
पशु में वैसे ही सिंह, ऋतु में वसन्त ही हो
तब होगा छोटे का क्या ?सोचा है विचार कर ।

सुनता रहा हूँ यही पापी से पापी को तुम
तारते रहे हो; तरी जरा, नाम लेते ही
बाल्मीकि ही न तरे, तरे तो अजामिल भी
और अहिल्या भी तरी पैर के छुवाते ही
पातकी पतित कई पाप से विमुक्त हुये
एक बार नाम तेरा हृदय में लाते ही
यही सब सुन कर आ गया हूँ द्वार तेरे
हाथी के सुने हो तुम सूंड़ के उठाते ही ।

चाहता नहीं हूँ प्रभु ऊँचा घर, ऊँची जात
मोक्ष भी न चाहूँ मैं तो, बस यही चाहता
जाड़ा काट लूँ मैं यह, बस यही करो तुम
और तो जैसे है होता, सभी कुछ थाहता
लगता यही कि जाड़ा काट नहीं पाऊँगा मैं
जब-जब अपनी सामथ्र्य को हूँ साहता
और तुमसे क्या बोलूँ सब जानते तो हो ही
निभता चला ही जाए जैसा कि निवाहता ।

कह कर इतना ही लौटा गेना चुपचाप
और फिर चढ़ आया खेत की ही आरी पर
गाढ़े दूध की तरह चाँदनी उफनती थी
बहती थी छप्पर पे, खेत, आरी-बारी पर
कलश ही चाँद का हो फूट गया, जैसे, और
दूध बहता हो जैसे सुखदा-कछारी पर
लूट रहीं चाँदनी छतों पे चढ़ी परियाँ
रधवा की रधिया भी अपनी खमारी पर ।

टकटकी लगा के गेना चाँद को निहारता है
माथे पे पिठाली से ही टिकुली बनाया चाँद
नभ का ही कल्पद्रुम आँखों के आगे में जैसे
और जिसमें लगा हो फूल-सा फुलाया चाँद नीले-नीले नभ का ही सागर मथाने से ही
बाहर हठात् ही ज्यों भीतर से आया चाँद
नीचे छुप गई है क्या बाँहों से छुटी-सी प्रिया
ऊपर से झाँक-झाँक देखता नौब्याहा चाँद ।

दिखता है गोरा-गोरा बौंसी का बदन कैसा
रगड़-रगड़ कर दूध से नहाया ज्यों
गुच्छा-गुच्छा फूल खिले, ऐसे ही दिखाते हैं ये
जूड़े में ही गूँथ-गूँथ उसने लगाये ज्यों
चली मनोकामना के मंदिर में पूजने को
पूरने की कामना को मन में बसाए ज्यों
मन्दार के ऊपर चमकता है चाँद ऐसे
हाथ में पूजा की थाली कोई हो उठाए ज्यों ।

चाँद है या कंतरी है दही की जमाई हुई
देख-देख अचरज गेना में समाया है
या कि उत्पाती किसी बच्चे के गुलेल ने ही
नभ में बड़ा-सा छेद कर ये दिखाया है
न-न ये शकुन्तला के वन का शशक ही है
भूल से मैदान में जो यहाँ चला आया है
रह-रह गेना चाहे हाथ से पकड़ने को
सोचेंगे क्या लोग, कहे ‘गेना उमताया है ।’

करता है जैसे कोई देख के अजूबा चीज
वैसे ही कराता चाँद आज है बेचारे को
चाँद क्या ? यूँ लगता है नीलम की थाली में ही
धीरे-धीरे लुढ़काता कोई जैसे पारे को
या तो सिर्फ माथा देवदूत का दिखाई पड़े
तैरने में जल बीच, पाने को किनारे को
देख-देख गेना है बौराया ऐसे, जैसे उसे
घोर के पिलाया गया भांग में धतूरे को ।