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गेना-पतझड़-खण्ड / गेना / अमरेन्द्र

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जिस तरह सन्यासी तेजे गद्दी और धन-धाम
और जैसे जोगी तेजे तृष्णा, लोभ और काम
ज्यों पति परदेश पर तिरिया तजे शृंगार
वैसे पीले पात को, निःपत्रा होती डार

नागा जैसे हैं लगे ये पंक्तिबद्ध जो गाछ
खोल कर अपने बदन कान्धे से ले के काछ
रात में ये ठूंठ लगते; नंग-धड़ंग-से भूत
दिन में लगते; ज्यों खड़े श्मशान में अवधूत

सामने हैं ठूंठ पीपल के, सहस्त्रों डार
इस तरह ज्यों सहस्रबाहु का ही हो अवतार
या कि पत्तेवाली नीचे हो गयी हैं डार
और ऊपर हो गये हैं सब जड़ों के तार

बाढ़ पत्तों की प्रवाहित, है हवा का जोर
लड़खड़ाते, खड़खड़ाते वृक्ष करते शोर
हरहरा कर खड्ड-खाई को भरे हैं पात
जो जहाँ पर थे, वहीं पर गड़ गये अवदात

एक सन्नाटा उदासी का बिछा है शान्त
गूंजता है खड़खड़ाहट से समूचा प्रान्त
हलहलाता एक अब भी पर वहाँ है गाछ
दूर हो पतझार से, उसको नचाता नाच

जड़ निकल कर डालियों से हो गई हैं तर
कौन जो इसको उजाड़े, है हवा को डर
सब जगह के पंक्षी आकर ले रखे हंै ठांव
गूंजते हैं टी. वी. टुट-टुट, और संग में काँव

जिसके नीचे अथिर गेना देखता है ठूँठ
सोचता हैµजिन्दगी क्या व्यर्थ ? बिल्कुल झूठ
पढ़ रहा है पत्रा झुनिया का मिला जो आज
एक अक्षर जिसका पढ़ना भी गिराता गाज

है लिखा, कि ‘‘क्या लिखूँ मैंµहे पिता, सब हाल
खाट पर सोया पड़ा है माई का कंकाल
आठमे भी साल का अब आ गया है अन्त
बीच में आकर कभी भी सुघ न ली, न तन्त

हैं कमाने पर वहाँ तो आप अति मशगूल
माँ के मुँह पर उड़ रही है पर यहाँ है धूल
क्या पता है आपको, बौंसी का सारा हाल
अबके अगहन मास में था खेत ही बेहाल

एक दिन भादो गिरा था फिर हुआ सब शान्त
क्या गिरा बस रोया ज्यों था, देख धधका प्रान्त
कौवे, कुत्ते ही रहे रोते अगहन के बाद
देह तज कर नर बने हैं खेत के ज्यों खाद

लोग मरते दाने को हैं, गिद्ध का है मौज
आठ, बत्तीस काँधों पर गुजरे यहाँ हैं रोज
‘‘हर कहो जी, हर कहो जी, राम ही है सत्त’’
गूंजते हर क्षण, मृत्यु है घूमती हो मत्त

छः दिनों की भूखी रधिया की हुई कल मौत
नियति सब के साथ घूमे आजकल हो सौत
जिस समय रधिया मरी तब उसकी कातर माय
पीटती कैसे थी छाती रुदन करती हाय
ज्यों कपोती लोटनी हो, ले दृगों में लोर
रात-संझा को किया करती रही वह भोर

और आखिर भूख ने ली उसकी माँ की जान
रधिया पहले, पीछे से माँ भी गई श्मशान,
लोग दुबड़ी-घास खा कर हैं मिटाते भूख
गंग से ज्यादा पवित्तर हो गई है थूक

अब तो पतझड़ है हुआµपत्ते नहीं, यह हाल
दुधमुँहे, थोथे मुँहों से, हैं चबाते छाल
छाल बिन कैसे हैं लगते वृक्ष के ये धड़
आदमी ने खा लिया है नीम तक की जड़

घर में पिछुवाड़े लगाया आप का वह बेल
जिसमें झूला डाल कर मुझको खेलाते खेल
और पत्ते थे चढ़ाते शिव को भोरे भोर
छत-विक्षत है । छाती फटती, देख टपके लोर

उसकी उबली छाल पर ही दिन कटे और रात
अब न वह भी, देख कर यह मृत्यु लेती घात
मेरा क्या है, जी मैं लूंगी, मिट्टी खाकर भी
पर क्या होगाµखाट पर है माँ बिछावन-सी

आखरी ही वक्त की ज्यों ले रही वह साँस
चाहती कुछ बोलने को, पर गले में फाँस

आँख जो खोले, खुली ही रहती उसकी आँख
भूल से न बन्द होते पलक के दो पाँख
बन्द होते, तो लगे; ज्यों न खुलेंगे, हाय
जी, पिताजी, शायद ही बच पाए मेरी माय ।’’

पढ़-पढ़ फाटे चित्त कपड़ा घुनाया-सा ज्यों
लोर ढरे गेना की आँखों सेµगिरे टप-टप
जिन्हें कि वो सर दायाँ-बायाँ कर पोछता है
बाँहों से । न देखे कोई, इसलिए झब-झब
मन करे बच्चे-सा भोक्कार कर रोए, पर
रहते दोनों ही ठोर सिर्फ किए कप-कप
बन्द मुँह-रुदन उमड़ता तो गेना के है
आँखों में दिखाई देते लोर-मोती दप-दप ।

कानों में गूंजती बातें किसकी ये रह-रह
झुनिया का बाबू है, जो रोते-रोते बोलताµ
‘‘आप हैं नगर में ही शान-शौक-मौज में ही
मृतवत मुनिया की माँ का अंग डोलता
बड़ी-बड़ी बात किया करते थे मुझसे ही
आदमी तो सूने में ही मन-धन खोलता
आज हूँ मैं झुनिया के दुख से दुखित नहीं
जितना कि आप का विचार मन झोलता ।’’

तपे हुए छड़ से ही दाग गया हो कोई ज्यों
जैसे छिद जाय सीना आर-पार तीर से
गर्म हुई कनपट्टीµलाल-लाल रक्त लाल
रह नहीं पाया गेना शांति और धीर से
सुन-सुन बातें सारी घाम से घमाया ऐसा
जैसे कि वह रो रहा हो सारे ही शरीर से
चिन्ता, असगुन, याद, सोच से बंधाया ऐसे
जैसे कि हिरण-छौना हाथी के जंजीर से ।

आँखों में उभरती है झुनिया की माँ की अर्थी
‘राम नाम सत्त है’ ये गूंजते हैं कान में
गेना आगे-आगे और पीछे हैं अर्थी के अन्य
रह-रह घूमता है दृश्य यही ध्यान में
छाती पीट-पीट कर, लोटती, हकरती है
झुनिया-रुदन; जैसे, भाला गांथे जान में
ऐसा कुम्हलाया गेना का बदन, पूरा अंग
जैसे कि गहन लग गया रहे चान में ।

एक बार झोल कर देह वह सजग हुआ
मिचमिचाए आँखों से निहारता है चारो दिश
मुट्ठी बांधे मन में विचार करे कई-कई
ले रहा अभी भी वही पूर्व-सा अन्धड़ ढिश
शांत हो रहा है हौलदिल अब; जैसे, साँप
मार खाके लोटता है, झाड़ता है बची रिस
मुँह पे चमक आई खिल गया मन एैसे
जल-जल राख हुआ, मुरझाया ऐसा विष ।

उठे-गिरे, गिरे-उठे मन में विचार फिर
झुनिया की माय आँखें खोलती है, देखता
‘मरेगी क्या मेरे जीते’ मन में ये सोचते ही
लगता है, गेना की ही कोई खाल खींचता
ये न होगा ये न होगा, कभी भी न होगा यह
पूरी आशा के ही साथ गेना साँस खींचता
बहते आँखों से आँसू याकि वे जमे हुए हैं
जान के बेकार-व्यर्थ आँखों से उलीचता ।

घूमते आँखों में सारा गाँव, घर, लोग-जन
देखता है गेनाµवह सभी ओर दौड़ता
किसी के पाँवों को जाँते, किसी की दबाए देह
और किसी के लिए तो कंद-मूल तोड़ता
किसी को खिलाता है, पिलाता हैµदवा औ दारू
स्नेह का संबंध दौड़े सबसे है जोड़ता
छोड़ता न जात, परजात, पर-परिजन
जैसे झुनिया की रोगी माँ को नहीं छोड़ता ।

देखता है, भूख से भुखाए लोग ऐसे लगे
जैसे किसी बच्चे की बनाई हुई तस्वीर
हाथ-पैर लम्बे-लम्बे, डगमग; पेट और
पीठ का पता ही नहीं, अंगुली, ज्यों लगे तीर
आँख रहे खोड़र ही; पुतली ज्यों जीभ रहे
देख के ही काँप गया, गेना हो गया अधीर
सोचता हैµआदमी के हाथ, पाँव, देह हैं ये ?
काठी जोड़-जोड़ के बनाया गया हो शरीर ।

देखता है गेना कि वह दौड़-दौड़ पानी लाए
छान लाए चुल्लू-चुल्लू, प्यासे को पिलाता है
माँग लाए किसी से भी बाजरे औ मड़ुवे को
उसी को सिझाए वह, किसी को खिलाता है
जड़ को उखाड़ लाए, बाँह से किसी की बाँधे
उसी को ही कूट-छान मधु में पिलाता है
काल ने मारा है जिसे थुकुच-थुकुच कर
उसको भी गेना छू के क्षण में जिलाता है ।

जैसे मधुमास में पलाश-वन लहके हैं
शोभता आकाश जैसे इन्द्रधनु छाने से
माँ का मन भरता है जैसे मद-मोद से है
फूल जैसी छाती में सोना-सा लाल पाने से
वैसे ही गेना की सेवा से हंै सब सुखी-शांत
उसके निःस्वार्थ प्रेम, त्याग-घन छाने से
जैसे परदेश में खुशी से कोई झूम उठे
देश के चैता को और गोदना को गाने से ।

देखता है ताप में तपाये ताँबे-जैसी देह
आग में गलाई चाँदी जैसी देह चमके
सभी के ओठों पे वे ही पुर्वी हंै, समदौन
झूमर के बोल घुँघरुओं-से ही छमके
सुन-सुन सोहर के सुर, सुन्दरी के पाँव
आगे न बढ़े हैं पाँव, रुके वहीं ठमके
गीत-नाद टोले-टोले में मचे हैं गम-गम
कानों में गेना के वे ही ढोल-झाल झमकै ।

और देखता है गेना: पीछे-पीछे, दौड़-दौड़
हो गया है गेना भी बीमार बड़े जोर से
हाथ-पैर शाम से झमाए; कँपकपी छूटे
रक्त चूवे, पटपरी पड़े दोनों ठोर-से
धीरे-धीरे उठती है ऐंठन; बढ़ी ही जाती
और दर्द उगता है देह-पोर-पोर से
तब भी है सबके सुखों से सुखी, हँसता है
बंधे न बंधाए, व्याधि-डायन की डोर से ।