सहिष्णुता / विजय कुमार विद्रोही
अलंकार स्वर लिख्खूँ या श्रृंगार करूँ उपमानों से
जब ख़ुद संकटग्रस्त पड़े हो अपने ही सम्मानों से
कैसे मैं हालत करूँ बयाँ जब पत्रकार आबाद नहीं
ओजप्रभा से संरक्षित स्वच्छंद कलम आज़ाद नहीं
अब मंचों पर चीख चीखकर सत्ता का गुणगान करो
मर्यादा के उन हंताओं का जमकर के सम्मान करो
प्रजातंत्र के निजकपूत किस स्वार्थ के फंदे झूले हैं
गाँधी नोटों में चिपकाकर लाल बहादुर भूले हैं
पन्ना का गौरव भूल गऐ झाँसी की रानी याद नहीं
तुम्हें कारगिल वीरों की वो अमर जवानी याद नहीं
जिन्नासुत जिन्नों का तुम अब कबतक जी बहलाओगे
फिर लोक-तंत्र से तंत्र मिटेगा पराधीन बन जाओगे
कमल पंकभक्ति में तर पंजा झाड़ू संग सोता है
संविधान पन्नों में दबकर सुबक-सुबककर रोता है
यही फलन है जब नवपीढ़ी आँसू से सन जाती है
सहिष्णुता जब हद से बढ़ती कायरता बन जाती है