भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कहो तो ना लिख्खूँ / विजय कुमार विद्रोही

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:51, 14 फ़रवरी 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विजय कुमार विद्रोही |अनुवादक= |सं...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जान चुका तुम शब्दों को , अंगार नहीं लिखने दोगे !
सत्ता की मनमानी का , प्रतिकार नहीं लिखने दोगे !
जनमानस के दुर्दिन के , अम्बार नहीं लिखने दोगे !
हो फूलों की बरसात चाहते , खार नहीं लिखने दोगे !
भूख ,गरीबी पे होता , व्यापार नहीं लिखने दोगे !
इस कातर होती पीढ़ी की , हुंकार नहीं लिखने दोगे !
संविधान का जर्जर तन , मैं अंधों को दिखलाता हूँ ।
बहरों की बस्ती में पीड़ा , लोकतंत्र की गाता हूँ ।

भारत माँ के भावों का श्रृंगार, नहीं लिखने दोगे !
राधे,निर्मल का पूजा दरबार , नहीं लिखने दोगे !
मुल्क में होता नारी अत्याचार , नहीं लिखने दोगे !
महँगाई का होता मूकप्रहार , नहीं लिखने दोगे !
जब भी कलम उठाऊँगा हर बार , नहीं लिखने दोगे !
है पता मुझे गद्दारों को गद्दार , नहीं लिखने दोगे !
संविधान का जर्जर तन मैं , अंधों को दिखलाता हूँ ।
बहरों की बस्ती में पीड़ा , लोकतंत्र की गाता हूँ ।

बोलो मेरी कविताऐं हैं बेकार, कहो तो ना लिख्खूँ !
सच्चाई के आगे हो लाचार, कहो तो ना लिख्खूँ !
दूषित होता पूरा धर्मप्रचार, कहो तो ना लिख्खूँ !
पल-2 पीता खूँ को भ्रष्टाचार, कहो तो ना लिख्खूँ !
देश में होता काला-कारोबार, कहो तो ना लिख्खूँ !
शब्दों में संरक्षित ये यलगार, कहो तो ना लिख्खूँ !
संविधान का जर्जर तन मैं , अंधों को दिखलाता हूँ ।
   बहरों की बस्ती में पीड़ा , लोकतंत्र की गाता हूँ ।