भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दिन हुए ऐसे नुकीले / अमरेन्द्र

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:24, 14 फ़रवरी 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अमरेन्द्र |अनुवादक= |संग्रह=दीपक...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दिन हुए ऐसे नुकीले,
रक्त से हैं पाँव गीले ।

सामने है रोशनी पर
आँख के आगे अंधेरा,
खोजता था मैं निशा में
चैत का मधुमय सबेरा;
गंध फूलों की उठी पर
इस तरह तिरछी हुई-सी,
प्राण से लग कर हृदय में
गँथ गई बरछी हुई-सी ।
किस तरह तन कर खड़े हैं,
जो दिखे थे कल लजीले ।

यह मरू है, जानता हूँ
पर कहीं तो धार होगी,
दिष्ट गीता तो रचेगा
क्या हुआ जो हार होगी;
मैं भगीरथ-वंश का हूँ,
कृष्ण मेरे पूर्वजों में,
स्वर्ण के कण बह रहे हैं
स्वर्णरेखा के रजों में ।
लड़खड़ाए, पर गिरे न,
प्राण, तुम भी हो हठीले !