भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गिरगिट / सुप्रिया सिंह 'वीणा'
Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:30, 4 मार्च 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुप्रिया सिंह 'वीणा' |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
अपनोॅ स्वारथ साधै लेली
पल पल गिरगिट रंग बदले छै।
छल-परपंच के रसता पर चलै वाली
बिलाय हज करै लैॅ चललों छै।
दोसरा छप्पर पर आग धरि कें
अपने घरोॅ में आग लगैनेॅ छै।
जें रखनें छेलै अपना घरों में
ओकरोह भी येॅ कहियों नै छोड़तै।
झूठे के जेॅ बाॅंचै छै साधु संत कहावै छै।
हाथी के दाँत दिखावै छैे
दुनिया केॅ भरमावै छै।
जे चेतलै गिरगिट सें बचलै
नै चेतलै तेॅ
अैहना लोगें जान गमावै छै।
हित-अनहित पशु-पक्षी भी सोचैं
आदमी के की होलोॅ छै।
गिरगिट तेॅ गिरगिट छेकै
घुरी फिरी मौका देखी के
रंग तेॅ बदलतै छै।
मतुर मनुखोॅ जाति नें कहिया,
गिरगिट के आदत अपनैलकै
आपनो नाम गिरगिट पर करलकै
ई दुखोॅ के बात।