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माय रोॅ ममता / सुप्रिया सिंह 'वीणा'

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होय छै ममता के अमर कोष
माय के ममता छै अमर ज्योत,
स्वछंद, निडर, अंजान डगर चलै छेलियै।
तोरे गोदी के मिट्ठो ॅ छाँव में,
सब कुछ भूली केॅ घूमै छेलियै,
कहाँ कोय डर छेलै।
माय तोंही तेॅ छेलोॅ हमरोॅ प्राण,
सौसें हमरोॅ जिनगी के जान-जहान,
मतुर हाय, नियति के एक हवा के झौका एैलै,
आरो तोरा छीनी लेलकौं हमरा सें।
जीवन सून्नोॅ, बेजान, निष्प्राण होय गेलै।
मन तेॅ माय के यादोॅ में डूबलोॅ रहै छेलै,
तन नित कर्मो के बंधन ढोतैं रहै छेलै।
मन प्राण विकल बेसुध छेलै ई पीड़ा में,
अनचोके सहसा एक रोज
आपनोॅ अन्तस्थल में ही माय के, ममता रोॅ पुकार भेलै,
हौ दिव्य प्रकाश पूंज के ही प्रेरणा छेकै ई
कि हमरा जीवन लेली नया रास्ता साफ होलोॅ छै,
लेखन आरो साहित्य के एक अनोखा वरदान मिललोॅ छै
माय आय तोहें तेॅ नै छोॅ
मतुर हम्में तोरा देखै छियौं कविता में, गीत में, छन्द में,
एकदम सुन्नोॅ, असकल्लोॅ जबेॅ होय छियै हम्में,
तेॅ बहै छै आंखी सें लोर, ठप-ठप-ठप.......।
माय आय कोय थपकी दै केॅ दुलारै वाला नै।
मन होय छै आय फेरू तोरा गोदी में सुती जाय के
आरो पावै लेॅ हौ सुक्खोॅ केॅ जे तोरा छूला सें मिलै छेलै।
आबोॅ नें माय ! कहाँ छोॅ तोंय, हाय ! कहाँ छोॅ तोंय।