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भँवरकथा / अमरेन्द्र

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कहीं हजारों मरे मेघ के फटने से ही
कहीं बर्फ के धसने से धस गये कई सौ
कहीं बाढ़ में बहे, रात में डूब गई पौ
घटता नहीं तमस रजनी के छटने से ही ।

नई बहू की लाश पड़ी है रक्त-कीच में
कहीं जवानों की लाशों का पता नहीं है
भोलू का धड़ और कहीं, सर और कहीं है
जरासंध-सा फटा पड़ा है न्याय-कीच में ।

बस्ती का है दहन कहीं, क्या पुतले का ही
पंचायत पर पांचजन्य का तुमुल नाद है
काँग्रेस कहती, लोकपाल में मिला खाद है
खास मार्ग पर बढ़ी हुई है आवा-जाही ।

मंदिर में शाही दौलत है, देवों के सिर घायल
मंत्राी के घर झनक रही है सालों से ही पायल।